Tuesday, March 8, 2011

दिव्या गुप्ता जैन का आलेख -- कम से कम अब तो तस्वीर बदलनी चाहिए -- महिला दिवस पर विशेष
कम से कम अब तो तस्वीर बदलनी चाहिएदिव्या गुप्ता जैन ==========================

सही मायने में महिला दिवस तब ही सार्थक होगा जब समाज में महिलाओं को मानसिक व शारीरिक रूप से संपूर्ण आज़ादी मिलेगी, जहाँ उन्हें कोई प्रताड़ित नहीं करेगा! समाज में हर महत्वपूर्ण निर्णय में उनके नज़रिए को महत्वपूर्ण समझा जायेगा! उन्हें भी पुरुष के सामान एक इंसान समझा जायेगा! जहाँ वह सर उठा कर अपने महिला होने पर गर्व कर सके!आज भी सच्चाई ये है की जन्म से पहले ही उसे जीने का अवसर बेटे की अपेक्षा काफी कम मिलता है! और अगर दुनिया में आ भी गयी तो पोषण और स्वस्थ्य सुबिधाओ में भारी कमी की जाती है! शिक्षा के मामले में बेटे को गुणवत्तापूर्ण श्रेठ विद्यालय तो बेटी को कम खर्च वाला सरकारी विद्यालय! क्यूंकि हम मानते है की उसे तो आगे चलकर चूल्हा- चौका ही करना है! घर के कामों की जिम्मेदारी उस पर 6 वर्ष से आ जाती है जबकि लड़का 14-15 साल तक भी बाबू ही रहता है!शादी के निर्णय में लड़कियों को कोई पसंद- नापसंद का अधिकार नहीं दिया जाता जबकि लड़के को ये अधिकार है कि वो कब और किससे शादी करेगा! खेल स्पर्धा में आज भी बहुत सी लडकिया काबिल होते हुए भी परिवार की रजामंदी न होने से हिस्सा नहीं ले पाती! यहाँ तक की राजनीति में भी परिवार के पुरुषो द्वारा महिलाये तब लायी जाती है जब महिला आरक्षित सीट हो या पुरुष किसी केस में फंसा हो! पद पर रखी जाती है महिला और उसकी डोर होती है पुरुष के हाथ!महिला परिवार को खुशियाँ देने के लिए प्रसव पीड़ा सहे! बच्चो को पाले पोसे! घर के बुजुर्गो का धयान रक्खे! मेहमानों की आवभगत करे! साल भर की गृहस्थी तैयार करे! पर फिर भी हम कहते हैं कि वो कुछ नहीं करती! क्यूंकि हम सिर्फ पैसा कमाने को ही काम मानते है! वो अलग बात है कि महिला 15 घंटे काम करती है और पुरुष 8 घंटे! अब तो हमें सोच बदलनी चाहिए वरना हजारों महिला दिवस आयेंगे और चले जायेंगे!और महिला बेटी, बहन, भाभी और माँ तो बन जाएगी पर समाज में और इंदिरा गाँधी, किरण बेदी, कल्पना चावला, सुनीता विलियम या सानिया मिर्ज़ा पैदा नहीं हो पाएंगी!

Sunday, November 14, 2010

खो ना जाये ये तारे जमीं पे

आज सभी बच्चे बहुत उत्साहित है की वे अपने स्कूल में बाल दिवस मनाएंगे औरअच्छे-अच्छे उपहार पाएंगे! नाचेंगे गायेंगे और ढेर सारी मस्ती करेंगे! कितनी प्यारी तस्वीर हैं ना! पर हमारें देश में बहुत सारे बच्चें हैं जो स्कूल नहीं जाते काम पर जाते है! हम सब हमेशा गपशप के दौरान अपने बचपन और स्कूल की ढेर सारी बातें करते है! पर नन्हे-मुन्नों का क्या जिन्हें या तो स्कूल नसीब नहीं होता और होता भी है तो ऐसा जहाँ उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिलती!
केंद्र सरकार ने मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा कानून को लागू तो करवा दिया पर पर ये कानून हमारें सभी नन्हे-मुन्नों का भविष्य सवारने के लिए नाकाफी है! इस कानून में भी बहुत सारे बदलाव की जरूरत है! जैसे कि "पैरा शिक्षक" (जैसे संबिदा शिक्षक, अथिति शिक्षक,गुरूजी, शिक्षामित्र आदि) लगाने पर रोक नहीं है! इसी कारण सरकारी व सस्ते निजी स्कूल में पढाई आज भी रामभरोसे चलती है!
कानून में शिक्षकों का न्यूनतम वेतन इतना कम रक्खा गया है की सरकारी स्कूल में पैरा शिक्षक और निजी में अयोग्य शिक्षक जारी रहेंगे! सरकारी शिक्षकों की चुनाव और जनगणना के काम में रोक नहीं लगाई गई! यानि मास्टरसाहब घूमेंगे गावं और बच्चें उनकी बाट जोहेंगे! कानून में निजी विद्यालयों की फीस बढ़ाने पर कोई रोक नहीं लगाई है! तो गरीब बच्चे बड़े स्कूल को देख तो सकते पर उसके अन्दर जाने की हिम्मत नहीं कर सकते!
एक अध्ययन के दौरान यह पता चला कि मलिन बस्ती में रहने वाले प्राथमिक स्तर पर शिक्षित अभिभावकों के बीस प्रतिशत बच्चे निरक्षर हैं। ऐसे परिवारों में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने जाने वाले बच्चों की संख्या 30.58 फीसदी है। इनमें 14.32 प्रतिशत लड़के और 16.26 प्रतिशत लड़कियां हैं। जाहिर है कि यहां पर छात्रओं की संख्या छात्रें से अधिक है। जबकि पढ़ाई छोड़ने वाले कुल 15.53 प्रतिशत बच्चों में से बालकों का प्रतिशत 10.43 हैं। वहीं दूसरी तरफ बालिकाओं का प्रतिशत 5.09 है।
कितना मजेदार हो अगर चुनाव आयोग वोटिंग मशीन में चुनाव चिन्ह हटा केसिर्फ उमीदवार का नाम लिखने का नियम लागु कर दे! तो सारे नेता अपना काम छोड़ कर जनता तो पढ़ाने-लिखाने में जुट जाएँ! और वो सारे स्कूल की फीस माफ़ करा देंगे! और हमारे चंदू, छोटू, दीपू, गायत्री, बड़की, रज्जो सब कचरा बीनना और बर्तन साफ़ करना छोड़ कर कहेंगे "स्कूल चले हम"!आईये हम सब मिलकर प्रयास करें की हमारें सभी नन्हे-मुन्ने पढ़े-लिखे और जीवन मैं बहुत आगे बढे!
- दिव्या गुप्ता जैन

Tuesday, August 10, 2010

मत कहो आकाश में कोहरा घना हैये किसी की वयक्तिगत आलोचना हैसुर्या हमने भी नही देखा सुबह सेक्या करोगे, सुर्या को क्या देखना हैरक्त वर्षों से नसों में खौलता हैआप कहते हैं क्षनिक उत्तेजना हैदोस्तों! अब मन्च पर सुविधा नहीं हैआजकल नेपथ्य में सँभावना हैहो गयी है पीर परवत सी, पिघलनी चाहियेइस हिमालया से कोई गंगा निकलनी चाहियेआज ये दीवार परदों की तरह हिलने लगीशर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिये हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव मेंहाथ लेहराते हुए, हर लाश चलनी चाहियेसिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहींमेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहियेमेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सहीहो कहिं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिये

-दुष्यंत कुमार

अपने पिता को विस्मृत न करें

माता-पिता का किसी भी व्यक्ति के जीवन में क्या महत्व है ये बताने की आवश्यकता नहीं है।जहाँ माँ कोख में बच्चे को अपने खून से सींचती है तो वही पिता उसे परिपक्व होने तक अपने पसीने से पालता है। एक तरफ माँ बच्चे के पालन- पोषण ढेर सारा त्याग और तपस्या के साथ करती है, तो दूसरी तरफ पिता एक मजबूत आधार की तरह हर समय सहारा देता है। इसीलिए यदि किसी परिवार में दुर्घटनावश यदि पिता की असमय म्रत्यु हो जाती है तो परिवार बिखर जाता है और बच्चे शिक्षा, सहारा, सलाह, प्रोत्साहन के आभाव में आगे नहीं बढ़ पाते। हर पिता अपने बच्चो को अपने से ज्यादा सफल देखना चाहता है जिसके वह कठिन परिश्रम करता है।अपने शौकों पर नियंत्रण करता है। जरुरत पड़ने पर कर्ज भी लेता है। खुद छोटे से घर में रहके, साइकिल चलाके अपने बच्चो के लिए बड़े घर और गाड़ी का सपना देखता है। और उस सपने को पूरा करने के लिए अपनी पूरी जिंदगी को संघर्ष में निकल देता है। पिता वो शाख है जो अपने बच्चे की हर मुश्किल में उसका साया बन जाता है। जिस समय उसे एक कदम भी चलना भी नहीं आता उसे उँगली पकड़ के चलना सिखाता है परन्तु आजकल के बच्चे अपना फर्ज भूल गए है
इसीलिए शहर के नक़्शे में वृद्धाश्रम दिखने लगे है। जहाँ पिता अकेले पाँच बच्चो को पाल लेता है उन्हें जीवन के सारे सुख आराम देता है वही पाँच बच्चे मिलकर एक पिता को नहीं पाल पाते। कमाने की भागदौड़ में हम मॉल में लगी सेल देखने का, किटी पार्टी का, समारोह में जाने का समय तो निकल लेते हैं! लेकिन बूढ़े पिता के जोड़ों के दर्द का हाल पूछने का समय नहीं निकल पाते। यहाँ तक कि हमें उनकी दवा का खर्च भी अखरने लगता है। हम उस समय ये भूल जाते है की ये वही बरगद का पेड़ है जिसकी छाया में पलके हम बड़े हुए है। यदि उन्होंने भी उस समय अपनी ऐशोआराम में समय बिताया होता तो शायद हम इस ऊंचाई पर नहीं पहुच पाते।
आइये अंतर्राष्ट्रीय पिता दिवस पर अपने पिता को सम्मान दे। हमारे जीवन में उनके योगदान को याद करें। और यदि वो अभाग्यवश हमारें साथ नहीं है तो अपने बच्चो के साथ उनके योगदान की चर्चा करें।